किसी को घर से निकलते ही मिल गई मंज़िल, कोई हमारी तरह उम्र भर सफ़र में रहा
जमाअत है हुस्न-ए-इबादत मगर, जो दिल से न हो वो इबादत नहीं
कोई प्यार से जरा सी फूंक मार दे, तो मैं बुझ जाऊं, नफरत से तो तूफान भी हार गए मुझे बुझाने में
बस एक माफ़ी, हमारी तौबा, कभी जो हम अब सताए तुमको, लो अब हाथ जोड़े, कान पकडे, अब कैसे मनाये तुमको
ज़माना, हुस्न, नज़ाकत, बला, ज़फ़ा, शोखी, सिमट के आ गए सब आपकी अदाओं में
उनके बग़ैर दिल को न सब्रो करार है, आँखों में नींद आये कई रोज़ हो गए, अब वो मिजाज़ पूछने आये है देखिये, हम को तो मुस्कुराये कई रोज़ हो गए
फिर कही भी पनाह नहीं मिलती, मुहब्बत जब, बे पनाह हो जाए
शर्ते लगाई जाती नहीं दोस्ती के साथ, कीजे मुझे क़ुबूल, मेरी हर कमी के साथ
मंज़िलें चाहे कितनी ही ऊंची क्यों न हो , रास्ते हमेशा पैरों के नीचे होते हैं
दुनिया में हूँ, दुनिया का तलबगार नहीं हूँ , बाजार से गुज़रा हूँ, खरीदार नहीं हूँ
फिर न कीजिये मेरी गुस्ताखे निगाही का गिला, देखिये आपने फिर प्यार से देखा मुझको